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रविवार, 15 मई 2022

दो गज़लें -शाम को कोई तो जगजीत सा गाता है यहाँ

चित्र साभार गूगल स्मृतिशेष जगजीत सिंह 


एक ग़ज़ल -
शाम  को कोई तो जगजीत सा गाता है यहाँ

आदमी  रंग का सपना लिए आता है यहाँ
ये तो बाज़ार है हर रंग का छाता है यहाँ

तेज बारिश में, कभी धूप में टिकता है कहाँ
बस तसल्ली के लिए आदमी लाता है यहाँ

ट्रेन की बोगी भी घर बार सी लगती है कभी
ज़िन्दगी रेल सी कुछ देर का नाता है यहाँ

दिन की महफ़िल में न अंदाज न आवाज़ सही
शाम को कोई तो जगजीत सा गाता है यहाँ

भूलने वाले मुझे याद किए  हैँ अक्सर
माँ भी कहती थी वही हिचकियाँ लाता है यहाँ

दो

सच कहेगा जो उसे देश निकला देगा
वो जुबानों को अभी और भी ताला देगा

जंग के शौक में बारूद हथेली पे लिए
चाँद के साथ वो आकाश भी काला देगा

सूख जायेंगे हरे पेड़, ये झरने, जंगल
पूछकर देखना मौसम का हवाला देगा

हर मुसाफिर को कड़ी धूप में चलना है अभी
जिस भी रस्ते पे चलोगे वही छाला देगा

नींद को टूटने देना न, उसी में रहना
बंद आँखों को वो हर ख़्वाब निराला देगा

जितने मजहब हैँ खुदा उतने किताबें उतनी
जैसा चश्मा है उसी रंग की माला देगा

चाँदनी सिर्फ़ मोहब्बत का छलावा देगी
पूरी दुनिया को ये सूरज ही उजाला देगा

कवि -जयकृष्ण राय तुषार
चित्र साभार गूगल 




एक गीत -राजा से मांगो मत काम कोई

चित्र साभार गूगल 


एक गीत -मोक्ष कहाँ देता है धाम कोई

सबको
सिंहासन ही चाहिए
पर साथी कहना मत काम कोई।

मौसम के
हरकारे झूठे
चुप रहते गर्मी,बरसातों में,
खेतोँ को 
रौंद रहे नंदी
बैठा है सूदखोर खातों में,
जैसी करनी
वैसी भरनी
मोक्ष कहाँ देता है धाम कोई ।

एकलव्य हो
चाहे लवकुश
वन का ही कंदमूल खाना है,
राजा के
हर उत्सव,मंगल में
जोर-जोर् तालियाँ बजाना है,
सीता को
आग से बचाने
कब आया पुरुषोत्तम राम कोई।

सबके अपने
मेनिफेस्टो
दिल्ली, बंगाली, गुजराती,
सूरज को
छूने की ज़िद में
जलता हर युग में सम्पाती,
मंत्र वही
अलग बस पताका 
कांग्रेस,सोशलिस्ट,दक्षिण या वाम कोई।

साहब की
अभी वही टाई
कदम कदम पर अफसरशाही,
दफ़्तर में
सब कुछ हैँ बाबू
जनता की जेब से उगाही,
लूटतंत्र,
लोकतंत्र, खादी
किसको हिम्मत बोले नाम कोई ।

सूट-बूट 
वालों को टेंडर
वोट बैंक वालों को राशन,
नौकरियाँ
बन्द कारखाने
कागज पर कोरे आश्वासन,
शहरों में
फ्लैट बिके मंहगे
खेत लिया कौड़ी के दाम कोई।

कवि जयकृष्ण राय तुषार


चित्र सभार गूगल
चित्र साभार गूगल 


शुक्रवार, 13 मई 2022

एक गीत -संविधान में कहाँ लिखा है?

 

श्रीराम 


एक गीत -संविधान में कहाँ लिखा और ?

संविधान में
कहाँ लिखा है
राष्ट्रपिता का काम ।
राष्ट्रपिता
हो सकते केवल
कृष्ण,भरत या राम ।

राष्ट्र विखंडित
करने वाले 
को इतना सम्मान,
जो फंदे
पर  झूले उनके
हिस्से बस अपमान,
जन्मभूमि
उनकी पावन है
जितना चारो धाम।

राष्ट्रपिता
वह बने कि जिसने
जीती थी श्रीलंका,
या फिर जिसका
अरब -ईस्ट तक
कभी बजा था डंका,
जिसने ढका
चक्र से सूरज
वह भी पावन नाम ।

राष्ट्र धर्म हो
गया
पड़ोसी मुल्कों का कुरआन,
ढोंगी सेकुलर
नहीं सुनाते
वन्देमातरम् गान,
दिल्ली की
गद्दी पर
बेबस बैठा था हुक्काम।

भारत
हिन्दू राष्ट्र बने
यह जनता का अधिकार,
सबके खातिर
एक नियम हो
बिना किसी तकरार,
राष्ट्र ग्रन्थ हो
भागवत गीता
जन जन करे प्रणाम ।


श्रीमद भागवत गीता


गुरुवार, 5 मई 2022

एक ग़ज़ल -न पेड़ है न परिंदों का अब मकान कोई

 

सभार गूगल

 

एक ताज़ा - ग़ज़ल

न पेड़ है न परिंदों का अब मकान कोई


सुकून बख़्स ज़मीं है न आसमान कोई

चलो सितारों में ढूँढें नया ज़हान कोई


तमाम नक़्शे घरों के बदल गए हैँ यहाँ

न पेड़ हैँ न परिंदो का अब मकान कोई


तमाम उम्र मुझे,मंज़िलें मिली ही नहीं

मुझे पता ही न था रास्ता आसान कोई


अजीब शाम कहीं महफ़िलों का दौर नहीं

बुरी ख़बर के बिना है कहाँ विहान कोई


ज़मीं पे रहके नज़र भी सिमट गयी है बहुत

अब अपने खेतोँ में रखता नहीं मचान कोई


हवाएं गर्म हैँ,मौसम को ये खबर ही कहाँ

नहीं अब मत्स्य,परी जल के दरमियान कोई


तमाम दाग़ हैँ अब सभ्यता के दामन पर

कहाँ अब बुद्ध को सुनता है बामियान कोई

कवि -जयकृष्ण राय तुषार


चित्र सभार गूगल

मंगलवार, 3 मई 2022

एक ग़ज़ल -सुर्खाब ग़ज़ल

 

चित्र सभार गूगल

चित्र सभार गूगल

एक ग़ज़ल -सुर्खाब ग़ज़ल


शोख इठलाती हुई परियों का है ख़्वाब ग़ज़ल
झील के पानी में उतरे तो है महताब ग़ज़ल

वन में हिरनी की कुलांचे है ये बुलबुल की अदा
चाँदनी रातों में हो जाती है सुर्खाब ग़ज़ल

उसकी आँखों का नशा ,जुल्फ की ख़ुशबू, ये हवा
रंग और मेहंदी रचे हाथों का आदाब ग़ज़ल

ये तवायफ की,अदीबों की,है उस्तादों की
हिंदी,उर्दू के गुलिस्ताँ में है शादाब ग़ज़ल

कूचा-ए-जानाँ,भी मज़दूर भी,साक़ी ही नहीं
शोख मौसम की निगाहों का हरेक ख्वाब ग़ज़ल

खुल के सावन में मिले और बहारों में खिले
ग़म समंदर का है दरियाओं का सैलाब ग़ज़ल

इसमें मौसीक़ी भी दरबारों की महफ़िल भी यही
अपने महबूब के दीदार को बेताब ग़ज़ल

मेरे सीने में भी कुछ आग,मोहब्बत है तेरी
मेरी शोहरत भी तुझे करती है आदाब ग़ज़ल



कवि/शायर 
जयकृष्ण राय तुषार
चित्र सभार गूगल


रविवार, 1 मई 2022

एक ग़ज़ल -संगम प्रयागराज/कुम्भ

 

संगम प्रयागराज चित्र सभार गूगल

एक अस्था की ग़ज़ल - संगम/महाकुम्भ

कुछ दरिया,कुछ कश्ती में कुछ रेत में दीपक जलते हैँ

संगम का अलबेला मौसम आओ हम भी चलते हैँ


भारद्वाज ऋषि का आश्रम है चित्रकूट का मार्ग यही

यह प्रयाग है साधो इसमें द्वादश माधव मिलते हैँ


श्रृंगवेरपुर यहीं यहीं पर केवट का संवाद मधुर

माया जिसकी दासी राक्षस उसी राम को छलते हैँ


अमृत कलश यहीं छलका था महाकुम्भ का पर्व यहाँ

धर्म अर्थ और काम मोक्ष के सब गुण इसमें मिलते हैँ


नागा,दंडी, सिद्ध,अघोरी,पंडे और पुरोहित भी

वृद्ध,अपाहिज,बालक पैदल गंगा तट पर चलते हैँ


धुूनी,प्रवचन,भंडारे हैँ,दान पुण्य का क्षेत्र यहाँ

इसमें लौकिक और अलौकिक ब्रह्मकमल भी खिलते हैँ


पौष ,माघ पूर्णिमा मकर,मौनी वसंत की महिमा है

कल्पवास में सदगृहस्थ भी विधि विधान में ढलते हैँ


मल्लाहों के साथ लहर पर जल पंछी के कौतुक हैँ

इसका वैभव पुण्य देखकर इंद्र देव भी जलते हैँ

जयकृष्ण राय तुषार

चित्र सभार गूगल