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मंगलवार, 12 नवंबर 2024

एक ग़ज़ल -हर खिड़की में धूप -चाँदनी

 

चित्र साभार गूगल 

एक ग़ज़ल -हर खिड़की में धूप -चाँदनी 


शाम को दादी किस्से कई सुनाती है 

बच्चों को भी सोनपरी ही भाती है 


अपनी -अपनी नज़रों से सब देख रहे

हर खिड़की में धूप -चाँदनी आती है 


किसी घाट पर फूल चढ़ाओ पुण्य वही 

गंगा काशी से ही पटना जाती है 


गुरुद्वारा, गिरिजाघर, और शिवाले में 

एक ज्योति है, एक दिए की बाती है 


तितली का फूलों से केवल रिश्ता है 

चिड़िया तो हर मौसम गाना गाती है 


यात्री को सच राह बताने वाला हो 

पगडंडी भी मंज़िल तक पहुँचाती है 


खतरा तो खतरा है चाहे छोटा हो 

बीड़ी भी जंगल में आग लगाती है

कवि जयकृष्ण राय तुषार 

चित्र साभार गूगल 


सोमवार, 11 नवंबर 2024

एक ग़ज़ल -चिड़िया कभी गाती नहीं

 

चित्र साभार गूगल 

चित्र साभार गूगल 

एक ग़ज़ल -बाज़ से डरती अगर चिड़िया 


सीखने संगीत विद्यालय कभी जाती नहीं 
बाज़ से डरती अगर चिड़िया कभी गाती नहीं 

तितलियाँ लिपटी हुईं फूलों से दिन में बेख़बर 
ये मुहब्बत भी तवायफ़ सी है शरमाती नहीं 

नौकरी कुछ इश्क कुछ टैबलेट,बदलते फोन में 
व्यस्त पीढ़ी अब गलत सिस्टम से टकराती नहीं 

मंद तारों की चमक में चाँद का सौंदर्य है 
चाँदनी को सूर्य की सोहबत कभी भाती नहीं 

घर में काजल पारती हैं अब नई माएं कहाँ 
घी में डूबी इन चरागों में कोई बाती नहीं 

कवि -शायर 
जयकृष्ण राय तुषार 
चित्र साभार गूगल 


शनिवार, 9 नवंबर 2024

ग़ज़ल -होंठ को सिलते -सिलते

 

चित्र साभार गूगल 

एक ग़ज़ल -चाँदनी, धूपमें, बारिश में 


चाँदनी, धूप में, बारिश में यूँ खिलते -खिलते 

शाख से फूल बिछड़ जायेंगे मिलते -मिलते 


सिर्फ़ कुछ देर उजाला है चलो बात करें 

वक़्त का दीप ये बुझ जायेगा जलते -जलते 


आज मौसम में हवा, पानी है, खुशबू भी है 

पाँव थक जायेंगे फिर राह में चलते -चलते 


ये तो दिन रात इक खेल है खेलो हँसकर 

चाँद उग जायेगा फिर शाम के ढलते -ढलते 


मुझको चुप रहने की तुम कितनी हिदायत दे दो 

सच मैं कह दूँगा कभी होंठों को सिलते- सिलते 

कवि जयकृष्ण राय तुषार 

चित्र साभार गूगल 


शुक्रवार, 8 नवंबर 2024

ग़ज़ल -तुम्हें मन की नज़र से देखते हैं

 

चित्र साभार गूगल 

ये मत पूछो किधर से देखते हैं 

तुम्हें मन की नज़र से देखते हैं 

ये मौसम देखकर खुश हैं परिंदे 
फले फूले शज़र से देखते हैं 

सुना है चाँद धुंधला हो गया है 
सभी उसको शहर से देखते हैं 

कुशल तैराक बनने का हुनर है 
चलो कश्ती भंवर से देखते हैं 

किताबों में सही  मंज़र नहीं है
नई दुनिया सफ़र से देखते हैं 

टिकट लगने लगा है पार्को में 
चलो सूरज को घर से देखते हैं 

हमारे दौर की गज़लें नई हैं 
वो ग़ालिब की बहर से देखते हैं 

कवि -जयकृष्ण राय तुषार 
चित्र साभार गूगल 

गुरुवार, 7 नवंबर 2024

ग़ज़ल -खुशबू तमाम रंग की हिंदी ग़ज़ल में है

 

चित्र साभार गूगल 


उर्दू ग़ज़ल की शान है महफ़िल महल में है 

मिट्टी का लोक रंग तो हिंदी ग़ज़ल में है

नदियों के साथ झील भी, दरिया भी,कूप भी 
लेकिन कहाँ वो पुण्य जो गंगा के जल में है 

मेरी ग़ज़ल तमाम रिसालों में छप गयी 
 अनजान है इक दोस्त जो घर के बगल में है 

दरिया में चाँद देखके सब लोग थे मगन 
आँखों को सच पता था ये छाया असल में है 

धरती को फोड़ करके निकलते हैं सारे रंग 
सरसों का पीला रंग भी धानी फसल में है 

खुशबू के साथ सैकड़ों रंगों के फूल हैं 
रिश्ता गज़ब का दोस्तों कीचड़ कमल में है
 
वैसे शपथ लिए थे सभी संविधान की 
लेकिन कहाँ ईमान का जज़्बा अमल में है 

 कवि -जयकृष्ण राय तुषार 
चित्र साभार गूगल 

चित्र साभार गूगल 



रविवार, 27 अक्तूबर 2024

दो ग़ज़लें -जयकृष्ण राय तुषार

 

चित्र साभार गूगल 


मौसम के साथ धूप के नखरे भी कम न थे 
यादें किसी की साथ थीं तन्हा भी हम न थे 

बज़रे पे पानियों का नज़ारा हसीन था 
महफ़िल में उसके साथ भी होकर भी हम न थे 

बदला मेरा स्वाभाव ज़माने को देखकर 
बचपन में दाव -पेंच कभी पेचोखम न थे 

राजा हो कोई रंक या शायर, अदीब हो 
जीवन में किसके साथ ख़ुशी और ग़म न थे 

बादल थे आसमान में, दरिया भी थे समीप 
प्यासी जमीं थी पेड़ के पत्ते भी नम न थे 

दो 

रंज छोड़ो गर कोई किस्सा पुराना याद हो 
बैठना मुँह फेरकर पर मौन से संवाद हो 

जिंदगी भी पेड़ सी है देखती मौसम कई 
फूल, खुशबू चाहिए तो शौक पानी, खाद हो 

अपनी किस्मत और मेहनत से मिले जो खुश रहें 
क्या जरुरी मुंबई में हर कोई नौशाद हो 

मिल गया दिवान गज़लों का मगर मशरूफ़ हूं 
फोन पर कुछ शेर पढ़िए आपको जो याद हो 

शायरा का हुस्न देखे तालियाँ बजती रहीं 
बज़्म में किसने कहा हर शेर पर ही दाद हो 

कवि जयकृष्ण राय तुषार 

चित्र साभार गूगल 


रविवार, 20 अक्तूबर 2024

गीत /ग़ज़ल -करवा चौथ

 

चित्र साभार गूगल 

करवा चौथ की सुमंगल कामनाओं के साथ 

पुरानी रचनाएँ 

एक आज करवा चौथ का दिन है

आज करवा चौथ

का दिन है

आज हम तुमको संवारेंगे।

देख लेना

तुम गगन का चांद

मगर हम तुमको निहारेंगे।


पहनकर

कांजीवरम का सिल्क

हाथ में मेंहदी रचा लेना,

अप्सराओं की

तरह ये रूप

आज फुरसत में सजा लेना,

धूल में

लिपटे हुए ये पांव

आज नदियों में पखारेंगे।


हम तुम्हारा

साथ देंगे उम्रभर

हमें भी मझधार में मत छोड़ना,

आज चलनी में

कनखियों देखना

और फिर ये व्रत अनोखा तोड़ना ,

है भले

पूजा तुम्हारी ये

आरती हम भी उतारेंगे।


ये सुहागिन

औरतों का व्रत

निर्जला, पति की उमर की कामना

थाल पूजा की

सजा कर कर रहीं

पार्वती शिव की सघन आराधना,

आज इनके

पुण्य के फल से

हम मृत्यु से भी नहीं हारेंगे।


दो 

जमीं के चांद को जब चांद का दीदार होता है


कभी सूरत कभी सीरत से हमको प्यार होता है

इबादत में मोहब्बत का ही इक विस्तार होता है


हम करवा चौथ के व्रत को मुकम्मल मान लेते हैं

जमीं के चांद को जब चांद का दीदार होता है


तेरे दीदार से ही चाँद करवा चौथ होता है 

तुम्हारी इक झलक से ईद का त्यौहार होता है 


निराजल रह के जब पति की उमर की ये दुआ मांगें

सुहागन औरतों का स्वप्न तब साकार होता है


यही वो चांद है बच्चे जिसे मामा कहा करते

हकीकत में मगर रिश्तों का भी आधार होता है


शहर के लोग उठते हैं अलार्मों की आवाजों पर

हमारे गांव में हर रोज ही जतसार होता है


हमारे गांव में कामों से कब फुरसत हमें मिलती

कभी हालीडे शहरों में कभी इतवार होता है।

कवि -जयकृष्ण राय तुषार

चित्र साभार गूगल 


रविवार, 2 जून 2024

एक प्रेम गीत -वीणा के साथ तुम्हारा स्वर हो

 

चित्र साधार गूगल 


एक गीत -वीणा के साथ तुम्हारा स्वर हो 

फूलों की 
सुगंध वीणा के 
साथ तुम्हारा स्वर हो.
इतनी सुन्दर 
छवियों वाला 
कोई प्यारा घर हो.

धान -पान के 
साथ भींगना 
मेड़ों पर चलना,
चिट्ठी पत्री 
लिखना -पढ़ना 
हँसकर के मिलना,
मीनाक्षी आंखें 
संध्या की,
पाटल सदृश अधर हो,

ताल-झील 
नदियों से 
पहले हम बतियाते थे 
कुछ बंजारे 
कुछ हम 
अपना गीत सुनाते थे,
हर राधा के 
स्वप्नलोक में 
कोई मुरलीधर हो.

इंद्रधनुष 
की आभा नीले 
आसमान में निखरी,
चलो बैठकर 
पढ़ें लोक में 
प्रेम कथाएँ बिखरी 
रमझिम 
बूंदों वाले मौसम में 
फिर साथ सफ़र हो.

सबकी चिंता 
सबका सुख दुःख 
मिलकर जीते थे,
निर्गुण गाते हुए 
ओसारे 
हुक्का पीते थे,
ननद भाभियों की 
गुपचुप 
फिर घर में इधर उधर हो.

कवि जयकृष्ण राय तुषार 
चित्र साधार गूगल 


शुक्रवार, 22 मार्च 2024

एक पुरानी ग़ज़ल - होली में

 

चित्र साभार गूगल 


चित्र साभार गूगल 


मित्रों आप सभी को रंगों के पर्व होली की हार्दिक शुभकामनायें

बुरा न मानो होली है यह सनातन पर्व बना रहे सभी के जीवन में खुशियों का रंग बिखेरता रहे.

एक ग़ज़ल -होली में


न पहले की तरह मस्ती नहीं किरदार होली में
बिना शब्दों की पिचकारी के हैँ अख़बार होली में

न फगुआ है न चैता है नहीं करताल ढोलक है
भरे रिमिक्स गानों से सभी बाज़ार होली में

पुलिस, सैनिक हमारे पर्व में ड्यूटी निभाते हैँ
सदा खुशहाल उनका भी रहे परिवार होली में 

निराला, पंत, बच्चन, रामजी पांडे के दिन क्या थे
महादेवी के घर कवियों का था दरबार होली में 

सियासत की खुशामद कीजिए सच बोलिएगा मत
कहाँ अब व्यंग्य सुनती है कोई सरकार होली में

व्यवस्था न्याय की मँहगी, बिलंबित औ थकाऊ है
इसे मी लार्ड थोड़ा दीजिये रफ़्तार होली में 

नयन काजल लगाए रास्ते में छू गया कोई
गुलाबी हो गए मेरे सभी अशआर होली में

हमारा राष्ट्र सुंदर है हमारी संस्कृति अनुपम
हमारे राष्ट्र के दुश्मन जलें इस बार होली में 

शहर में बस गए बचपन के साथी गाँव सूने हैँ
अबीरें रख के तन्हा है मेरा घर द्वार होली में 

नहीं अब फूल टेसू के मिलावट रंग, गुझिया में
कहो मौसम से अब कोई न हो बीमार होली में 


नहीं अब कृष्ण, राधा हैँ न गोकुल, नन्द बाबा हैँ
कहाँ अब गोपियों सी भक्ति सच्चा प्यार होली में

नहीं चौपाल पर अब भाँग, सिलबट्टा न होरी है
न भाभी और देवर की बची मनुहार होली में

गली में झूम जोगीरा सुनाती मण्डली गायब
शिवाले पर नहीं पहले सी अब जयकार होली में

कवि जयकृष्ण राय तुषार 
चित्र साभार गूगल 



रविवार, 10 मार्च 2024

दो ग़ज़लें -हमीं से रंज ज़माने से

चित्र साभार गूगल 


एक

हमीं से रंज, ज़माने से उसको प्यार तो है
चलो कि रस्मे मोहब्बत पे एतबार तो है

मेरी विजय पे थीं तालियाँ न दोस्त रहे
मेरी शिकश्त का इन सबको इंतजार तो है

हजार नींद में इक फूल छू गया था हमें
हज़ार ख़्वाब था लेकिन वो यादगार तो है

गुजरती ट्रेने रुकीं खिड़कियों से बात हुई
उस अजनबी का हमें अब भी इंतजार तो है

तुम्हारे दौर में ग़ालिब नज़ीर, मीर सही
हमारे दौर में भी एक शहरयार तो है

अब अपने मुल्क की सूरत जरा बदल तो सही
तेरा निज़ाम है अब तेरा अख्तियार तो है

हमारे शहर तो बारूद के धुएँ से भरा
तुम्हारे शहर का मौसम ये खुशगवार तो है

दो

परिंदे तैरते हैं जो नदी झीलों में होते हैं
कहाँ बादल के टुकड़े रेत के टीलों में होते हैं

सफ़र में दूरियां अब तो सिमट जाती हैं लम्हों में
दिलों के फासले लेकिन कई मीलों में होते हैं

जरा सा वक़्त है बैठो मेरे अशआर तो सुन लो
मोहब्बत के फ़साने तो कई रीलों में होते हैं

ये गमले बोनसाई छोड़कर आओ तो दिखलाएं
कमल के फूल कितने रंग के झीलों में होते हैं

हम इक मजदूर हैं प्यासे हमें पानी नहीं मिलता
हमारी प्यास के चर्चे तो तहसीलों में होते हैं

कहानी में ही बस राजा गरीबों से मिला करते
हक़ीक़त में तो राजा राम ही भीलों में होते हैं

खंडहरों का भी एक माँजी इन्हे नफ़रत से मत देखो
तिलस्मी तख़्त, सिंहासन इन्ही टीलों में होते हैं

शहर से दूर लम्बी छुट्टियों के बीच तन्हा हम
हरे पेड़ों, तितलियों और अबाबीलों में होते हैं