चित्र साभार गूगल स्मृतिशेष जगजीत सिंह |
एक ग़ज़ल -
शाम को कोई तो जगजीत सा गाता है यहाँ
आदमी रंग का सपना लिए आता है यहाँ
ये तो बाज़ार है हर रंग का छाता है यहाँ
तेज बारिश में, कभी धूप में टिकता है कहाँ
बस तसल्ली के लिए आदमी लाता है यहाँ
ट्रेन की बोगी भी घर बार सी लगती है कभी
ज़िन्दगी रेल सी कुछ देर का नाता है यहाँ
दिन की महफ़िल में न अंदाज न आवाज़ सही
शाम को कोई तो जगजीत सा गाता है यहाँ
भूलने वाले मुझे याद किए हैँ अक्सर
माँ भी कहती थी वही हिचकियाँ लाता है यहाँ
दो
सच कहेगा जो उसे देश निकला देगा
वो जुबानों को अभी और भी ताला देगा
जंग के शौक में बारूद हथेली पे लिए
चाँद के साथ वो आकाश भी काला देगा
सूख जायेंगे हरे पेड़, ये झरने, जंगल
पूछकर देखना मौसम का हवाला देगा
हर मुसाफिर को कड़ी धूप में चलना है अभी
जिस भी रस्ते पे चलोगे वही छाला देगा
नींद को टूटने देना न, उसी में रहना
बंद आँखों को वो हर ख़्वाब निराला देगा
जितने मजहब हैँ खुदा उतने किताबें उतनी
जैसा चश्मा है उसी रंग की माला देगा
चाँदनी सिर्फ़ मोहब्बत का छलावा देगी
पूरी दुनिया को ये सूरज ही उजाला देगा
कवि -जयकृष्ण राय तुषार
चित्र साभार गूगल |
बहुत सुंदर ग़ज़ल, आदरणीय शुभकामनाएँ ।
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