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गुरुवार, 13 मार्च 2025

एक पुराना होली गीत

 

चित्र -गूगल सर्च इंजन से साभार 
एक - होली में आना जी आना 

होली में 
आना जी  आना 
चाहे जो रंग लिए आना |
भींगेगी देह 
मगर याद रहे 
मन को भी रंग से सजाना |


वर्षों से 
बर्फ जमी प्रीति को 
मद्धम सी आंच पर उबालना ,
जाने क्या
चुभता है आँखों में 
आना तो फूंककर निकालना ,
मैं नाचूँगी 
राधा बनकर 
तू कान्हा बांसुरी बजाना |


आग लगी 
जंगल में या 
पलाश दहके हैं ,
मेरे भी 
आंगन में 
कुछ गुलाब महके हैं ,
कब तक 
हम रखेंगे बांधकर 
खुशबू का है कहाँ ठिकाना |


लाल हरे 
पीले रंगों भींगी
चूनर को धूप में सुखायेंगे ,
तुम मन के 
पंख खोल उड़ना 
हम मन के पंख को छुपायेंगे ,
मन की हर 
बंधी गाँठ खोलना 
उस दिन तो दरपन हो जाना |


हारेंगे हम ही 
तुम जीतना 
टॉस मगर जोर से उछालना ,
ओ मांझी 
धार बहुत तेज है 
मुझे और नाव को सम्हालना ,
नाव से 
उतरना जब घाट पर 
हाथ मेरी ओर भी बढ़ाना


दो -
आम  कुतरते हुए सुए से 


आम कुतरते हुए सुए से 
मैना कहे मुंडेर की |
अबकी होली में ले आना 
भुजिया बीकानेर की |


गोकुल ,वृन्दावन की हो 
या होली हो बरसाने की ,
परदेशी की वही पुरानी 
आदत है तरसाने की ,
उसकी आंखों को भाती है 
कठपुतली आमेर की |


इस होली में हरे पेड़ की 
शाख न कोई टूटे ,
मिलें गले से गले ,पकड़कर 
हाथ न कोई छूटे ,
हर घर -आंगन महके खुशबू 
गुड़हल और कनेर की |


चौपालों पर ढोल मजीरे 
सुर गूंजे करताल के ,
रूमालों से छूट न पायें 
रंग गुलाबी गाल के ,
फगुआ गाएं या फिर बांचेंगे 
कविता शमशेर की |
चित्र -गूगल सर्च इंजन से साभार
[मेरा दूसरा गीत अमर उजाला के २० मार्च २०११ के साप्ताहिक परिशिष्ट जिंदगी लाइव में प्रकाशित हो चुका है |इस गीत को प्रकाशित करने के लिए जाने माने कवि /उपन्यासकार एवं सम्पादक साहित्य अरुण आदित्य जी  का विशेष आभार]
[दूसरा  गीत   नरेंद्र व्यास जी के आग्रह पर  लिखना पड़ा, इसलिए यह गीत उन्हीं को समर्पित  कर रहा हूँ ]

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