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बुधवार, 26 मार्च 2025

एक ताज़ा गीत -चैत्र रामनवमी भी आनेवाली है

 

चित्र साभार गूगल

चित्र साभार गूगल

चित्र साभार गूगल


एक ताज़ा गीत -

सुबह 

परी सी बन्द

खिड़कियाँ खोल रही.

फूल गली 

फिर राधे -

राधे बोल रही.


गोकुल,

वृन्दावन 

मन में बरसाना है,

यमुना के 

जल में भी 

तालमखाना है,

मन के 

निधिवन 

एक मयूरी बोल रही.


फागुन 

बीत गया 

आमों का मौसम है,

महाकुम्भ की 

याद 

सजाये संगम है,

लहरों पर 

नौका 

आहिस्ता डोल रही.


चैत्र 

रामनवमी 

भी आने वाली है,

सरयू 

मंगल गीत 

सुनानेवाली है,

अवधपुरी 

की मिट्टी

जय -जय बोल रही.


काशी के 

घाटों पर 

उत्सव चलते हैं,

इसमें 

दीप अखण्ड 

हमेशा जलते हैं,

ठुमरी

गंगा तट

मीठे रस घोल रही.

कवि 

जयकृष्ण राय तुषार

चित्र साभार गूगल

चित्र साभार गूगल


शुक्रवार, 14 मार्च 2025

कुछ दोहे होली

 

चित्र साभार गूगल

फूलों से श्रृंगार कर मौसम हुआ अनंग 

होली के हुड़दंग में काशी पीये भंग 

गली गली फगुआ सुने जोगीरा के बोल 
इंद्रधनुष से हो गए सबके सुर्ख कपोल 

साधू, संत, गृहस्थ सब मना रहे त्यौहार 
होली सिखलाती हमें सब रंगो से प्यार 

तन मन रंगना भूलकर बैठे पथिक उदास 
भक्ति सरोवर खिल रहा बरसाने के पास 

ब्रज पढ़ता है सूर को काशी तुलसीदास 
बस प्रयाग में ही मिलीं यमुना, गंगा पास 

रिश्ते और समाज के मरहम हैं त्यौहार 
लोकरंग के साथ में देते हैं उपहार 

सबकी अपनी बाँसुरी सबके अपने राग 
अपनी सारंगी लिए वैरागी मन जाग 

टेसू, इत्र, ग़ुलाल से खुश गोपी, गोपाल 
अपनी धुन में बज रहे उद्धव के करताल 

केरल, पटना, चेन्नई, दिल्ली और भोपाल 
कुछ उदास कुछ रंग गए राजनीति के गाल 

धूल भरी पगडंडियों पर रंगों का खेल 
उम्र जाति बंधन नहीं सबका सबसे मेल 

बचे रहें ये रंग सब, बचा रहे संसार 
हिंसा होली में जले, बचे शांति और प्यार

जयकृष्ण राय तुषार

चित्र साभार गूगल


गुरुवार, 13 मार्च 2025

एक पुराना होली गीत

 

चित्र -गूगल सर्च इंजन से साभार 
एक - होली में आना जी आना 

होली में 
आना जी  आना 
चाहे जो रंग लिए आना |
भींगेगी देह 
मगर याद रहे 
मन को भी रंग से सजाना |


वर्षों से 
बर्फ जमी प्रीति को 
मद्धम सी आंच पर उबालना ,
जाने क्या
चुभता है आँखों में 
आना तो फूंककर निकालना ,
मैं नाचूँगी 
राधा बनकर 
तू कान्हा बांसुरी बजाना |


आग लगी 
जंगल में या 
पलाश दहके हैं ,
मेरे भी 
आंगन में 
कुछ गुलाब महके हैं ,
कब तक 
हम रखेंगे बांधकर 
खुशबू का है कहाँ ठिकाना |


लाल हरे 
पीले रंगों भींगी
चूनर को धूप में सुखायेंगे ,
तुम मन के 
पंख खोल उड़ना 
हम मन के पंख को छुपायेंगे ,
मन की हर 
बंधी गाँठ खोलना 
उस दिन तो दरपन हो जाना |


हारेंगे हम ही 
तुम जीतना 
टॉस मगर जोर से उछालना ,
ओ मांझी 
धार बहुत तेज है 
मुझे और नाव को सम्हालना ,
नाव से 
उतरना जब घाट पर 
हाथ मेरी ओर भी बढ़ाना


दो -
आम  कुतरते हुए सुए से 


आम कुतरते हुए सुए से 
मैना कहे मुंडेर की |
अबकी होली में ले आना 
भुजिया बीकानेर की |


गोकुल ,वृन्दावन की हो 
या होली हो बरसाने की ,
परदेशी की वही पुरानी 
आदत है तरसाने की ,
उसकी आंखों को भाती है 
कठपुतली आमेर की |


इस होली में हरे पेड़ की 
शाख न कोई टूटे ,
मिलें गले से गले ,पकड़कर 
हाथ न कोई छूटे ,
हर घर -आंगन महके खुशबू 
गुड़हल और कनेर की |


चौपालों पर ढोल मजीरे 
सुर गूंजे करताल के ,
रूमालों से छूट न पायें 
रंग गुलाबी गाल के ,
फगुआ गाएं या फिर बांचेंगे 
कविता शमशेर की |
चित्र -गूगल सर्च इंजन से साभार
[मेरा दूसरा गीत अमर उजाला के २० मार्च २०११ के साप्ताहिक परिशिष्ट जिंदगी लाइव में प्रकाशित हो चुका है |इस गीत को प्रकाशित करने के लिए जाने माने कवि /उपन्यासकार एवं सम्पादक साहित्य अरुण आदित्य जी  का विशेष आभार]
[दूसरा  गीत   नरेंद्र व्यास जी के आग्रह पर  लिखना पड़ा, इसलिए यह गीत उन्हीं को समर्पित  कर रहा हूँ ]