एक ताज़ा ग़ज़ल -
मगर मतला तुम्हारे हुस्न के दीदार से निकला
महल,परिवार सबकुछ छोड़कर घर-बार से निकला
दोबारा बुद्ध बनने कौन फिर दरबार से निकला
फ़क़ीरों की तरह मैं भी जमाना छोड़ आया हूँ
बड़ी मुश्किल से माया मोह के किरदार से निकला
चुनौती रेस की जब हो तो आहिस्ता चलो भाई
वही हारा जो कुछ सोचे बिना रफ़्तार से निकला
ग़ज़ल के शेर तो दुश्वारियों के बीच कह डाले
मगर मतला तुम्हारे हुस्न के दीदार से निकला
मैं अपने ही किले में कैद था तुमसे कहाँ मिलता
मेरा सबसे बड़ा दुश्मन मेरे परिवार से निकला
मैं शायर हूँ, कलेक्टर हूँ, या मैं कप्तान हूँ, तो क्या
मेरे होने का मतलब तो मेरे आधार से निकला
किसी महफ़िल का हिस्सा मैं कभी भी हो नहीं सकता
जहाँ मौसम था जैसा बस वही अशआर से निकला
वही डूबा जो मल्लाहों के कन्धों पर नदी में था
जो खुद से तैरकर डूबा वही मझधार से निकला
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