चित्र -गूगल से साभार |
फिर गुलाबी
धूप -तीखे
मोड़ पर मिलने लगी है |
धूप -तीखे
मोड़ पर मिलने लगी है |
यह
जरा सी बात पूरे
जरा सी बात पूरे
शहर को खलने लगी है |
रेशमी
जूड़े बिखर कर
गाल पर सोने लगे हैं ,
गुनगुने
जल एड़ियों को
रगड़कर धोने लगे हैं ,
बिना माचिस
के प्रणय की
आग फिर जलने लगी है |
खेत में
पीताम्बरा सरसों
तितलियों को बुलाये ,
फूल पर
बैठा हुआ भौंरा
रफ़ी के गीत गाये ,
सुबह -
उठकर, हलद -
चन्दन देह पर मलने लगी है |
हवा में
हर फूल की
खुशबू इतर सी लग रही है ,
मिलन में
बाधा अबोली
खिलखिलाकर जग रही है ,
विवश होकर
डायरी पर
फिर कलम चलने लगी है |
कुछ हुआ है
ख़्वाब दिन में
ही हमें आने लगे हैं ,
पेड़ पर
बैठे परिन्दे
जोर से गाने लगे हैं ,
सुरमई
सी शाम
बहुत सुन्दर रचना, बधाई.
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आपका
हटाएंसराहनीय ।बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार
हटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार
हटाएंक्या बात है तुषार जी ! मन में वसंत का आह्वान कर दिया आपके इन शब्दों ने ।
जवाब देंहटाएंआपका हार्दिक आभार
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