साहित्य समाज के पीछे लंगड़ाता हुआ चल रहा है -
रवीन्द्र कालिया
रवीन्द्र कालिया
साहित्यिक आयोजन
मेरे निर्माण और रचनाषीलता में इलाहाबाद का है अहम रोल:
रवींद्र कालिया
रवींद्र कालिया
हिंदी की सारी शब्द यात्रा पर गौर करने का समय आ गया है:
लाल बहादुर वर्मा
लाल बहादुर वर्मा
हिंदी विवि के इलाहाबाद केंद्र में आयोजित हुई ‘मेरी शब्दयात्रा’श्रृंखला
श्री रवीन्द्र कालिया को पुष्प गुच्छ और शाल देकर सम्मानित करते समारोह के अध्यक्ष प्रो० लाल बहादुर वर्मा और सबसे दायें श्री अजित पुष्कल |
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के इलाहाबाद क्षेत्रीय केंद्र में दिनांक 27 अप्रैल 2013 को ‘मेरी शब्द यात्रा’ श्रृंखला के तहत आयोजित तीसरे कार्यक्रम में वरिष्ठ साहित्यकार एवं ज्ञानोदय के संपादक श्री रवींद्र कालिया ने अपनी रचना प्रक्रिया को साझा करते हुए कहा कि अब साहित्य, समाज के आगे चलने वाली मशाल नहीं रही, अब वह समाज से बहुत ज्यादा पीछ रहकर लंगड़ाते हुए चल रहा है। कालिया जी अपनों से मुखातिब हुए तो फिर पूरी साफगोई से कल से आज तक का सफरनामा सुनाया। कहा, आज हिंदी का वर्चस्व बढ़ रहा है और इसका भविष्य उज्ज्वल है। आने वाले कल में लोग हिंदी के अच्छे स्कूलों के लिए भागेंगे। मेरा सौभाग्य है कि इसी हिंदी के सहारे मैंने पूरी दुनिया की सैर की। जहां तक लिखने के लिए समय निकालने की बात है तो मैंने जो कुछ भी लिखा, अपने व्यस्ततम क्षणों में ही लिखा। जितना ज्यादा व्यस्त रहा, उतना ही ज्यादा लिखा। अपने आसपास की जिंदगी को जितना अच्छा समझ सकेंगे, उतना ही अच्छा लिख सकेंगे। कई बार समय को जानने के लिए टीनएजर्स को समझना जरूरी है, उनकी ऊर्जा और सोच में समय का सच होता है।
कहानी पाठ करते रवीन्द्र कालिया सबसे बाएं चर्चित कथाकार ममता कालिया कालिया जी के बाएं क्रमशः प्रो० लाल बहादुर वर्मा और प्रो० सन्तोष भदौरिया |
मेरा मनना है कि जो बीत जाता है, उसे भुला देना बेहतर है, उसे खोजना अपना समय व्यर्थ करना है। लोग जड़ों के पीछे भागते हैं, मैं अपनी जड़े खोजने जालंधर गया, पर वहां इतना कुछ बदल चुका था कि बीते हुए कल के निशान तक नहीं मिले। मेरी स्मृतियों में इलाहाबाद आज भी जिंदा है, रानी मंडी को मैं आज भी महसूस करता हूं। मैं जब पहली बार इलाहाबाद पहुंचा था तो मेरी जेब में सिर्फ बीस रुपये थे और जानने वाले के नाम पर अश्क जी, जो उन दिनों शहर से बाहर थे। माना जाता था कि जिसे इलाहाबाद ने मान्यता दे दी, वह लेखक मान लिया जाता था। इसी शहर ने मुझे ‘पर’ बांधना सिखाया और उड़ना भी। यहां सबसे ज्यादा कठिन लोग रहते हैं। यहां सबसे ज्यादा स्पीड ब्रेकर हैं, सड़कों पर और जिंदगी में भी। इस शहर में प्रतिरोध का स्वर है। हालांकि आज हम दोहरा चरित्र लेकर जीते हैं, ऐसा नहीं होता तो दिखने वाले प्रतिरोध के स्वर के बाद दिल्ली जैसी कोई घटना दोबारा नहीं होती। अब प्रतिरोध का शोकगीत लिखने का समय आ गया है। जरूरत है उन चेहरों के शिनाख्त की जो मुखौटे लगाकर प्रतिरोध करते हैं। साहित्यकार होने के नाते मैं भी शर्मिंदा हूं। जो साहित्य जिंदगी के बदलाव की तस्वीर पेश करता है, वही सच्चा साहित्य है। यदि हमारा साहित्य लेखन समाज को नहीं बदलता है तो वह झक मारने जैसा ही है। प्रेमचंद का लेखन जमीन से जुड़ा था, इसीलिए वह आज भी सबसे ज्यादा प्रासंगिक और पठनीय है। मेरी कोशिश रहेगी कि मैं अपने लेखन में समाज से ज्यादा जुड़ा रह सकूं।
अतीत की स्मृतियों को सहेजते हुए उन्होंने हिंदी और लेखन से नाता जोड़ने की दिलचस्प दास्तां सुनाई। बोले, घर में आने वाले हिंदी के अखबार में बच्चों का कोना के लिए कोई रचना भेजी थी, तब मुझे सलीके से अपना नाम भी लिखना नहीं आता था। चंद्रकांता संतति जैसी कुछ किताबें लेकर पढ़ना शुरू किया। कुछ लेखकों के नाम समझ में आने लगे। जाना कि अश्क जी जालंधर के हैं तो एक परिचित के माध्यम से उनसे मिलना हुआ, साथ में मोहन राकेश भी थे। इस बीच एक बार बहुत हिम्मत करके अश्क जी का इंटरव्यु लेने पहुंचा तो उनका बड़प्पन कि उन्होंने मुझसे कागज लेकर उस पर सवाल और जवाब दोनों ही लिखकर दे दिए। उनका इंटरव्यु साप्ताहिक हिंदुस्तान में छपा। सिलसिला शुरू हुआ तो एक गोष्ठी में पहली कहानी पढ़ी। साप्ताहिक हिंदुस्तान और फिर आदर्श पत्रिका में कहानी छपी तो पहचान बनने लगी। परिणाम यह कि जालंधर आने पर एक दिन मोहन राकेश जी मुझे ढूंढते हुए घर तक आ पहुंचे। उन्होंने ही मुझे हिंदी से बीए आनर्स करने को कहा। हालांकि मेरी बहनों ने पालिटिकल साइंस में पढ़ाई की। शुरूआत में विरोध तो हुआ लेकिन बाद में सब ठीक होगा। कपूरथला के सरकारी कालेज में पहली नौकरी की। आरंभिक दौर में मेरी कहानियां पत्र-पत्रिकाओं में जिस गति से जाती, उसी गति से लौट आती। बाद में वे सभी उन्हीं पत्रिकाओं में छपीं, जहां से लौटी थीं। आकाशवाणी में भी कार्यक्रम मिलने लगे जहां जगजीत सिंह जैसे दोस्त भी मिले। इससे पहले कालिया जी ने अपनी कहानी ‘एक होम्योपैथिक कहानी’का पाठ किया। बतौर अध्यक्ष लाल बहादुर वर्मा ने कहा कि, आज कालिया जी को सुनना जितना अच्छा लगा, अब से पहले कभी नहीं। यह इसलिए सुखद लगा क्योंकि शब्दों में अर्थ विलीन होता रहा, लेकिन आज जरूरत है कि समाज और साहित्य को लेकर उनकी चिंताएं साझा की जाएं।
कार्यक्रम का संयोजन एवं संचालन क्षेत्रीय केंद्र के प्रभारी प्रो. संतोष भदौरिया द्वारा किया गया। लाल बहादुर वर्मा एवं अजित पुश्कल ने शाल, पुष्पगुच्छ प्रदान कर साहित्यकार रवींद्र कालिया का स्वागत किया एवं धनन्जय चोपड़ा ने रवींद्र कालिया के जीवन वृत्त पर प्रकाश डाला। प्रो. ए.ए. फातमी ने अतिथियों का स्वागत किया।
गोष्ठी में प्रमुख रूप से ममता कालिया, अजीत पुश्कल, ए.ए. फातमी, वरिष्ठ अधिवक्ता उमेश नारायण शर्मा ,स्थाई अधिवक्ता ए० पी० मिश्र ,असरफ अली बेग, अनीता गोपेश, दिनेश ग्रोवर, रमेश ग्रोवर, एहतराम इस्लाम, रविनंदन सिंह, अनिल रंजन भौमिक, अजय प्रकाश, विवेक सत्यांशु, नीलम शंकर, बद्रीनारायण, हरीशचन्द पाण्डेय, जयकृष्ण राय तुषार, नन्दल हितैषी, फखरूल करीम, जेपी मिश्रा, सुबोध शुक्ला, धनंजय चोपड़ा, अविनाश मिश्र, श्रीप्रकाश मिश्र, आमोद माहेश्वरी, फज़ले हसनैन, सुरेन्द्र राही, अमरेन्द्र सिंह सहित तमाम साहित्य प्रेमी उपस्थित रहे।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें