बुधवार, 17 मार्च 2021

एक ग़ज़ल-इस बार लिखा उसने न मिलने का बहाना

 

चित्र साभार गूगल


एक ग़ज़ल


मौसम भी वही माली भी बेकार नहीं है

पर फूल में खुशबू कहीं इस बार नहीं है


इस बार लिखा उसने न मिलने का बहाना

इस बार भी खाली कोई इतवार नहीं है


दिखने में तो ये घर भी महल जैसा बना है

पर खिड़की कहीं कोई हवादार नहीं है


शोहरत की बुलन्दी पे है ये वक्त है उसका

वो मंच विदूषक कोई किरदार नहीं है


अब गाँव में बिक जाते हैं आमों के बगीचे

अब सोच रहा हूँ कहाँ बाजार नहीं है


एक आस मोहब्बत की लिए फूल खड़ी है

ऑंखें भी मेरी उससे दो चार नहीं है


मुझको भी निभाना पड़ा इक रस्म से रिश्ता

अब मेरा क़रीबी ही वफ़ादार नहीं है


जंगल को हिरन छोड़ के क्यों भाग रहा है

लोगों से सुना था यहाँ गुलदार नहीं है


होंठों पे हँसी नकली है आँखों मे उदासी

दिल थाम के हँसने का समाचार नहीं है


जयकृष्ण राय तुषार

चित्र साभार गूगल



शनिवार, 13 मार्च 2021

एक गीत-बासमती के धान हरे हैं

 

चित्र साभार गूगल


एक गीत-बासमती के धान हरे हैं


नहरों,नदियों

तालों वाले

बासमती के धान हरे हैं ।

जो मेघों की

छाया में थे

उनके पत्ते फूल झरे हैं ।


बौछारों से

पेड़ भींगते

देहरी पर गौरैया बोले,

देवदास का

मन उदास है

खिड़की बन्द न पारो खोले,

बेला, गुड़हल

चम्पा महके

पर कनेर पर ज़हर फरे हैं ।


चाक कुम्हारों के

चुप बैठे

 धागा टूटा मिट्टी गीली,

झील किनारे

सोई हिरनी

हिरन देखता आँख नशीली,

बाघों की

आहट से

सारे पशु पक्षी वाचाल डरे हैं

जयकृष्ण राय तुषार

चित्र साभार गूगल


शुक्रवार, 12 मार्च 2021

एक गीत-इस पठार पर फूलों वाला मौसम लाऊँगा

 

चित्र साभार गूगल

 

एक गीत-

इस पठार पर

फूलों वाला

मौसम लाऊँगा ।

मैं अगीत के

साथ नहीं हूँ

गीत सुनाऊँगा ।


तुलसी की

चौपाई

मीरा के पद पढ़ता हूँ,

आम आदमी

की मूरत

कविता में गढ़ता हूँ,

ताज़ा

उपमानों से

अपने छन्द सजाऊँगा ।


एक उबासी

गंध हवा में

दिन भर बहती है,

क़िस्सागोई से

हर संध्या

वंचित रहती है,

नदी

ढूँढकर मैं

हिरनी की प्यास बुझाऊँगा ।


मौन लोक में

लोकरंग का

स्वर फिर उभरेगा,

ठुमरी भूला

मगर

कभी तो मौसम सुधरेगा,

मैं गोकुल

बरसाने 

जाकर वंशी लाऊँगा ।



कवि जयकृष्ण राय तुषार

चित्र साभार गूगल


गुरुवार, 11 मार्च 2021

एक गीत-सारंगी जोगी मत छोड़ना

 


एक गीत-सारंगी जोगी मत छोड़ना


सारंगी

जोगी मत छोड़ना ।

अच्छे पथ पर

सबको मोड़ना ।


जीवन के तार

जहाँ ढीले हों

दुःख से जब नयन

कभी गीले हों

तार सभी कसकर

के बाँधना

गोरखवाणी

मन को साधना

सुर की यह वंशी

मत तोड़ना  ।


माटी की देह

देह नश्वर है

गीता का श्लोक

मन्त्र ईश्वर है

माया की कैद में

मछन्दर है

तिरिया के देश

महल अन्दर है

गुरु के टूटे 

मनके जोड़ना ।

जयकृष्ण राय तुषार



बुधवार, 10 मार्च 2021

एक गीत-एक रंग होली का

 

चित्र साभार गूगल

एक होली गीत


एक रंग

होली का

फागुन के आने का ।

एक रंग

साँवरिया

गोकुल,बरसाने का ।


टेसू के

फूलों से 

ऋतु का श्रृंगार हुआ,

खुशबू के

दिन लौटे

फूलों से प्यार हुआ,

चुप्पियाँ

हँसेंगी फिर

डर है हर्जाने का ।


कंचन तन

मन रंगना

गीत के गुलालों से,

इस रंग को

छूना मत

इत्र की रूमालों से ,

कजरौटा

गायब है

कल से सिरहाने का।


होरी के

गीतों में

चैत के शिवाले हैं,

आम्र बौर

महके हैं

पंछी मतवाले हैं,

मिलने का

मौसम यह

मौसम तरसाने का।

जयकृष्ण राय तुषार

चित्र साभार गूगल


शनिवार, 6 मार्च 2021

एक ग़ज़ल - मेरी क़िस्मत में नहीं इस झील का शतदल रहा

 

 



चित्र -साभार गूगल 

क ग़ज़ल -

मेरी क़िस्मत में नहीं इस झील का शतदल रहा

मेरी क़िस्मत में नहीं इस झील का शतदल रहा

मैं भी हातिम था मगर हर रास्ता दलदल रहा


एक ही दरिया से निकले थे सभी पानी लिए

आसमां में मेरे पानी के बिना बादल रहा


सिद्धियाँ थी दास उसकी वह तो परमहंस था 

मूर्ति से संवाद उसका,कहते सब पागल रहा 


नायिका को काव्य में लिखते थे मृगनयनी सभी

गाय के घी से बना उस दौर में काजल रहा


मैं कुशल तैराक था पर भाग्य पर निर्भर रहा

एक छोटी सी नदी की धार में असफ़ल रहा


सच परखने के लिए सीता को किसने अग्नि दी

थी नहीं गीता मगर दरिया में गंगाजल रहा


राम जी तम्बू में थे सरयू बहुत लाचार थी

पर अदालत की किताबों में सुनहरा हल रहा

जयकृष्ण राय तुषार



चित्र -साभार गूगल 

मंगलवार, 2 मार्च 2021

एक गज़ल -हर दिन डूबे सूरज इसमें चाँद को हर दिन आना है

 

विशेष -
प्रोफ़ेसर सदानन्दप्रसाद गुप्त 
कार्यकारी अध्यक्ष 
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान 


आप सभी को प्रणाम करते हुए एक ग़ज़ल पोस्ट कर रहा हूँ |इस ग़ज़ल कुछ नामों की प्रशंसा भी है इसका स्पष्टीकरण भी दे रहा हूँ |जीवन के किसी मोड पर कुछ गुरू ,शुभचिंतक मिल जाते हैं जो बिना परिचय के भी आपको बहुत कुछ आशीष दे जाते हैं |प्रोफ़ेसर सदानंद प्रसाद गुप्त जिनके द्वारा पुरस्कार सम्मान के साथ हिन्दी संस्थान में काव्य पाठ का अवसर मिला |डॉ0 उदय प्रताप सिंह अध्यक्ष हिंदुस्तानी एकेडमी ने मुझ पर भरोसा किया और एकेडमी का कुलगीत मुझसे लिखवाया |प्रोफ़ेसर ईश्वर शरण विश्वकर्मा जी ने मुझे सहज भाव से उच्चतर शिक्षा सेवा चयन आयोग का पैनल एडवोकेट बनाया |इन सभी गुरुजनों से जोडने वाला एक नाम है महन्थ दिग्विजय नाथ कालेज में हिन्दी के अध्यापक डॉ 0 नित्यानन्द श्रीवास्तव जी का |
प्रोफ़ेसर ईश्वर शरण विश्वकर्मा
अध्यक्ष
उच्चतर शिक्षा सेवा चयन 
आयोग



मेरी छत पर इन चिड़ियों का हर दिन पानी -दाना है
यह भी तो एक प्यार -मोहब्बत जैसा ही अफ़साना है

झील का पानी ,पेड़ का साया मिल जाए तो अच्छा है
वरना पाँव में छाले लेकर राह में चलते जाना है

एक तिलस्मी जादूगर सा अपना यह आकाश भी है
हर दिन डूबे सूरज इसमें चाँद को हर दिन आना है

सदानन्द जी राष्ट्रधर्म और हिन्दी के उद्गाता हैं
उनका मन तो राष्ट्रप्रेम की झील में तालमखाना है

उदय प्रताप सिंह ने प्रयाग का गौरव मान बढ़ाया है
गुरु गोरख के संग हिन्दी का इनको मान बढ़ाना है

ईश्वर शरण विश्वकर्मा जी का उज्ज्वल इतिहास रहा
शत-प्रतिशत ईमान ही जिनके जीवन का पैमाना है

कोई रिश्ता नहीं है जिससे वह मेरा शुभ चिंतक है
नित्यानन्द जी से तो अपना काशी का याराना है

निर्गुण गाओ सबसे अच्छा यदि मौसम का गीत न हो
उसकी महफ़िल जैसे -तैसे हमको आज सजाना है

जयकृष्ण राय तुषार
डॉ 0 उदय प्रताप सिंह 
अध्यक्ष
हिन्दुस्तानी  एकेडमी प्रयागराज 


एक ग़ज़ल -मैं तो मिट्टी का दिया हूँ कहीं जल सकता हूँ

 

चित्र -साभार गूगल 

एक ग़ज़ल-
उड़ भी सकता हूँ मैं ,पानी पे भी चल सकता हूँ
सिद्ध हूँ ख़्वाब हक़ीकत में बदल सकता हूँ

कुछ भी मेरा हैं कहाँ, घर नहीं, असबाब नहीं
जब भी वो कह दे मैं घर छोड़ के चल सकता हूँ

पानियों पर, मुझे मन्दिर में, या घर में रख दो
मैं तो मिट्टी का दिया हूँ कहीं जल सकता हूँ

शौक मेरा ये नहीं पाँव में चुभता हूँ मगर
एक काँटा हूँ कहाँ फूल सा खिल सकता हूँ

मैं भी सूरज हूँ मगर कृष्ण के द्वापर वाला
दिन के रहते हुए भी शाम सा ढल सकता हूँ
जयकृष्ण राय तुषार
चित्र -साभार गूगल 


सोमवार, 1 मार्च 2021

एक गीत -क्रांतिकारियों के बलिदानों को हम कैसे भूल गए

 

चित्र -साभार गूगल 

एक गीत -क्रांतिकारियों के बलिदानों को हम कैसे भूल गए क्रांतिकारियों के बलिदानों को हम कैसे भूल गए । उनकी गाथा फिर से लिक्खो जो फाँसी पर झूल गए। आज़ादी का मतलब केवल धरना और उपवास लिखे, भगत सिंह आज़ाद से नायक उन चश्मों को नहीं दिखे, लाठी से भी पहले लड़ने बम,गोली,तिरशूल गए। सिर्फ़ पुरुष ही नहीं क्रांति में नारी भी मर्दानी थी, तिलक,सावरकर तात्या टोपे और झाँसी की रानी थी, सबके हिस्से काँटे केवल राजघाट तक फूल गए। असली गाँधी की मूरत को नकली गाँधी घेर लिए, गाँधी बनकर गाँधीवाद से ही अपना मुँह फेर लिए, फूल लगाकर कोट में चाचा देश की सरहद भूल गए। सत्य अहिंसा के तारों से सूरज अस्त नहीं होता, वीरों का बलिदान न होता दुश्मन पस्त नहीं होता, लंदन भागे अंग्रेजों के हाथ-पाँव जब फूल गए। जयकृष्ण राय तुषार

चित्र -साभार गूगल