एक ग़ज़ल -
रंग- पिचकारी लिए मौसम खड़ा
ख़त 'बिहारी' लिख रहा होकर विकल
ऐ मेरे 'जयसिंह 'मोहब्बत से निकल
फिक्र है विद्वत सभा दरबार को
कब तू छोड़ेगा नई रानी महल
अब प्रजा का हाल वह कैसे सुने
इत्र विस्तर पर बगीचे में कंवल
अभी कुछ दिन और सिंहासन पे रह
मुल्क की कुछ और भी सूरत बदल
आ रही संगम नहाने बोट पर
धर्म बदले है पुजारन आजकल
आँख पर पट्टी लगा जो दौड़ता
अश्व गिरता है वही घुटनों के बल
रंग -पिचकारी लिए मौसम खड़ा
ओ मेरे महबूब खिड़की से निकल
जयकृष्ण राय तुषार
चित्र -साभार गूगल |
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें