![]() |
चित्र साभार गूगल |
एक गीत -सपने फूलों के
यह माटी की
देह, देह के
सपने फूलों के.
फिर भी
लिखते रहे
विवश हम गीत बबूलों के.
प्यास
हिरन की नदी
ढूंढती पावों में छाले,
माया की
अंधी सुरंग में
सोये रहे उजाले,
फिर फिर
वही कहानी
किस्से अपनी भूलों के.
जीवन
जाल समेटे
बैठा रहा मछलियों में,
मौसम
गाता रहा हमेशा
फूल तितलियों में,
अपनी सुविधा
देख बदलते
नियम उसूलों के.
कवि जयकृष्ण राय तुषार
![]() |
चित्र साभार गूगल |
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें