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रविवार, 10 मार्च 2024

दो ग़ज़लें -हमीं से रंज ज़माने से

चित्र साभार गूगल 


एक

हमीं से रंज, ज़माने से उसको प्यार तो है
चलो कि रस्मे मोहब्बत पे एतबार तो है

मेरी विजय पे थीं तालियाँ न दोस्त रहे
मेरी शिकश्त का इन सबको इंतजार तो है

हजार नींद में इक फूल छू गया था हमें
हज़ार ख़्वाब था लेकिन वो यादगार तो है

गुजरती ट्रेने रुकीं खिड़कियों से बात हुई
उस अजनबी का हमें अब भी इंतजार तो है

तुम्हारे दौर में ग़ालिब नज़ीर, मीर सही
हमारे दौर में भी एक शहरयार तो है

अब अपने मुल्क की सूरत जरा बदल तो सही
तेरा निज़ाम है अब तेरा अख्तियार तो है

हमारे शहर तो बारूद के धुएँ से भरा
तुम्हारे शहर का मौसम ये खुशगवार तो है

दो

परिंदे तैरते हैं जो नदी झीलों में होते हैं
कहाँ बादल के टुकड़े रेत के टीलों में होते हैं

सफ़र में दूरियां अब तो सिमट जाती हैं लम्हों में
दिलों के फासले लेकिन कई मीलों में होते हैं

जरा सा वक़्त है बैठो मेरे अशआर तो सुन लो
मोहब्बत के फ़साने तो कई रीलों में होते हैं

ये गमले बोनसाई छोड़कर आओ तो दिखलाएं
कमल के फूल कितने रंग के झीलों में होते हैं

हम इक मजदूर हैं प्यासे हमें पानी नहीं मिलता
हमारी प्यास के चर्चे तो तहसीलों में होते हैं

कहानी में ही बस राजा गरीबों से मिला करते
हक़ीक़त में तो राजा राम ही भीलों में होते हैं

खंडहरों का भी एक माँजी इन्हे नफ़रत से मत देखो
तिलस्मी तख़्त, सिंहासन इन्ही टीलों में होते हैं

शहर से दूर लम्बी छुट्टियों के बीच तन्हा हम
हरे पेड़ों, तितलियों और अबाबीलों में होते हैं 

4 टिप्‍पणियां:

  1. वाह!!

    हम इक मजदूर हैं प्यासे हमें पानी नहीं मिलता
    हमारी प्यास के चर्चे तो तहसीलों में होते हैं

    वैसे दोनों ही ग़ज़लें बेहद खूबसूरत हैं,

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