एक गीत -बंजारन बाँसुरी बजाना
मद्धम सुर हो या हो पंचम
बंजारन बाँसुरी बजाती जा.
राजा अब गीत कहाँ सुनता
तू अपनी बस्ती में गाती जा.
मौसम को दोष नहीं देना
वन फूलों जैसा ही खिलना,
हँसकर के तितली को छूना
पात भरे पेड़ों से मिलना.
थकी हुई पर्वत की घाटी
आँखों में स्वप्न को सजाती जा.
कत्थक मुद्राएँ, गन्धर्व नहीं
नौटंकी, लोककला हाशिए,
उज्जयिनी नवरत्नो से विहीन
शब्द, अर्थ भूलते दूभाषिए,
गंगा तो निर्गुण भी सुनती है
लहरों पर दीप कुछ जलाती जा.
नीलकमल झीलों में मुरझाए
लहरों पर जलकुम्भी इतराए,
रिश्तों से रीत गया आँगन
बरसों से दरपन धुंधलाये,
हाथों से मेघों को बीनकर
छत पर कुछ चाँदनी सजाती जा.
कवि जयकृष्ण राय तुषार
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (24-05-2023) को "सारे जग को रौशनी, देता है आदित्य" (चर्चा अंक 4659) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हार्दिक आभार आपका आदरणीय शास्त्री जी
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