शुक्रवार, 29 अप्रैल 2022

एक ग़ज़ल -बहुत मौसम कमीना है

 

चित्र सभार गूगल

एक ग़ज़ल -बहुत मौसम कमीना है


हवा में गर्द, आँधी, आग,गर्मी का महीना है

बिना पानी का दरिया रेत में डूबा सफीना है


कहीं सहरा,कहीं दलदल, कहीं फूलों की घाटी है

किसे क्या दे वही जाने बहुत मौसम कमीना है


अहं अस्तित्व का दुनिया में अब टकराव लाएगा

हमें बारूद के साये में अब बंकर में जीना वो


वो उठता बैठता भी अब नज़ूमी के इशारों पर

अंगूठी तो सुनहरी है मगर नकली नगीना है



हमारे देश के बच्चे कहाँ अब क्रांतिकारी हैँ

गदर की बात भूले सिर्फ़ यादों में रवीना है


ये सूखे पेड़,नदियाँ,भूख से व्याकुल परिंदे हैँ

सुबह सूरज के माथे पर लकीरें और पसीना है


हमारे हर तरफ दुश्मन हिमालय जागते रहना

कहीं,शहबाज़ जिनपिंग और कहीं बेगम हसीना है

जयकृष्ण राय तुषार

चित्र सभार गूगल


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