शुक्रवार, 8 मार्च 2024

एक ग़ज़ल -तितलियाँ अच्छी लगीं


चित्र साभार गूगल 


एक गज़ल -तितलियाँ अच्छी लगीं 

कूकती कोयल, बहारें, तितलियाँ अच्छी लगीं

उसकी यादों में गुलों की वादियाँ अच्छी लगीं 


जागती आँखों ने देखा इक मरुस्थल दूर तक 

स्वप्न में जल में उछ्लतीं मछलियाँ अच्छी लगीं |


मूंगे -माणिक से बदलते हैं कहाँ किस्मत के खेल 

हाँ मगर उनको पहनकर उँगलियाँ अच्छी लगीं |


देखकर मौसम का रुख तोतों के उड़ते झुंड को 

पके गेहूं की सुनहरी बालियाँ अच्छी लगीं |


दूर थे तो सबने मन के बीच सूनापन भरा 



तुम निकट आये तो बादल बिजलियाँ अच्छी लगीं |


उसके मिसरे पर मिली जब दाद तो मैं जल उठा 

अपनी ग़ज़लों पर हमेशा तालियाँ अच्छी लगीं |


जब जरूरत हो बदल जाते हैं शुभ के भी नियम 

घर में जब चूहे बढे तो बिल्लियाँ अच्छी लगीं |




चित्र -गूगल से साभार 


[मेरी यह ग़ज़ल आजकल फरवरी 2007 में प्रकाशित है ]

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