सभार गूगल |
एक ताज़ा - ग़ज़ल
न पेड़ है न परिंदों का अब मकान कोई
सुकून बख़्स ज़मीं है न आसमान कोई
चलो सितारों में ढूँढें नया ज़हान कोई
तमाम नक़्शे घरों के बदल गए हैँ यहाँ
न पेड़ हैँ न परिंदो का अब मकान कोई
तमाम उम्र मुझे,मंज़िलें मिली ही नहीं
मुझे पता ही न था रास्ता आसान कोई
अजीब शाम कहीं महफ़िलों का दौर नहीं
बुरी ख़बर के बिना है कहाँ विहान कोई
ज़मीं पे रहके नज़र भी सिमट गयी है बहुत
अब अपने खेतोँ में रखता नहीं मचान कोई
हवाएं गर्म हैँ,मौसम को ये खबर ही कहाँ
नहीं अब मत्स्य,परी जल के दरमियान कोई
तमाम दाग़ हैँ अब सभ्यता के दामन पर
कहाँ अब बुद्ध को सुनता है बामियान कोई
कवि -जयकृष्ण राय तुषार
चित्र सभार गूगल |
बेहतरीन गजल
जवाब देंहटाएंतमाम नक़्शे घरों के बदल गए हैँ यहाँ
जवाब देंहटाएंन पेड़ हैँ न परिंदो का अब मकान कोई
बहुत गहरी बात, यही हकीकत है आज दुनिया जहाँ की